शुक्रवार, 11 मार्च 2011

भारत का दिल की बोली हे मालवी


                                                    

सु मालव देस भलो सबहीं तैं प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा

 भारत का अलग -अलग अंचल में बोली जावा वाली बोली हुन इकी ताकत हे . हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी के ई सब मिली के ताकत देवे हे . मालवी समेत सगली भाषा ने बोलीहुन इकी खोली भरे हे . लोकभाषा ने संस्कृति को हम जितरो मन्थन कराँ उतराज रतन ने मोती हुन हमारे मिले हे. पन दिक्कत या हे के आधुनिकता की आंदी दौड में हम अपनी बोली -बानी , साहित्य -संस्कृति से मुंह मोड़ी रिया हाँ .  इना दन  जितरो विस्थापन लोग -बाग ने समाजहुन को हुइ रियो हे , ऊसे कम लोक  - साहित्य ने संस्कृति को नी हुइ रियो हे . हमारा घर- आँगन की बोलीहुन अपनाज घर में पराई होवा को दरद झेली री हे . मालवी ने निमाडी को भी योज दरद हे .मालवा के हम एक तरा से छोटो भारत केई सकां हाँ . ई में आखा भारत की संस्कृति ने ऊकी सुवास  गागर में सागर की तरा समई हुइ हे . मालवा की परम्परा हुन पे आखा भारत को असर हुओ हे तो याँ की संस्कृति ने बाकी भारत पे असर डाल्यो हे . भारत का पूरब -पश्चम ने उत्तर-दक्षण का जोडवा वाला रस्ता हुन मालवा या अवन्ती क्षेत्र से हुइ के जाता था.  इको प्रतीक धन जेसो चिन्ह दुनिया भर में जान्यो जाए हे. याँ  की मालवी तो  भारत का दिल की बोली हे . 
मालवी का साथे याँ का आसपास की बोलीहुन ने संस्कृति हुन  भी एक -दूसरा का हात में हात डाली ने  इस तरा खडी हे के ऊना के हम अलग नी करी सकां हाँ . हम याँ सोचा  के दूसरा लोगाँ की  बोली ने संस्कृति हुन मिटी जाए ने हमारी बची जाए , तो यो कदी नी हुइ  सकेगा . कोइ  भी एक बोली  या संस्कृति जद मिटे हे तो तो ऊको नुक्सान दूसरा के भी भोगनो पडेगा . एसा में हमारी कोसिस होनी चइये के सब जगा की बोलीहुन ने संस्कृति हुन बची रे ने ऊना के ऊछेरवा का सारू सब हिली -मिली के कोसिस कराँ .पतो नी कितरी सदी हुन बीती गी, यो अपनो मालवो डग -डग रोटी ने पग- पग नीर , अपनी खास आबोहवा ने भूगोल से अलग से पेचान राखे हे. कितरा  जुग बीती ग्या ,पन यो इलाको देश-विदेश का लोगां को मन हरतो अई रियो हे . पुराना भारत में जो भी खास  विदेशी मिजवान - पावणा आया, वी मालवा में जरूर आया ने याँ का लोगाँ  ने याँ  की संस्कृति को वर्णन खूब मन लगई के कर्यो . सातवीं सदी में चीन से आयो ह्वेनसांग , ग्यारहवीं  सदी में आयो अल्बरूनी, चौदहवीं सदी में आयो इब्नबतुता ,मध्य काल में आयो पुर्तगाली फादर मान्सिरेट ,फ्रान्स को पामणा बर्नियर, तेवर्नियर ने फेर अंग्रेज हुन टोमस रो, एडवर्ड टेरी, कनिंघम ,स्लीमेन  -  ई सगला मालवा ने याँ का समाज ने संस्कृति पे रीझी ग्या था . याँ की उपज ने याँ की बनी चीजाँ, याँ को ज्ञान  देश -विदेश  में पसंद कर्यो  जातो थो . सन्त कवि सुन्दरदास ने मालवा का बारा में लिख्यो हे-
वृच्छ अनन्त सुनीर वहंत सु , सुन्दर सन्त विराजै तहीं तैं।नित्य सुकाल पडे न दुकाल , सु मालव देस भलो सबहीं तैं ।।
आज विकास का नाम पे विनाश को  नवो  जमानो  अई गयो हे , पन या बात  आज भी  मालवा पे खरी उतरी री हे. ईकी वजह हे के याँ का लोग हुन ने अपनी धरती ने ऋतु हुन से अपनो रिश्तो बनायो रख्यो हे . आज मालवी ने याँ की संस्कृति घर- आँगन से लई के चोपाल ने चोराहा तक जिंदा हे.  मालवा में रेवा वाला दो करोड से ज्यादा मनख अपना मन की वात इना का माध्यम सेज केवे ने सुने हे. आज भी केई एसा शब्द ने केवात हे जिनको कोइ विकल्प अंग्रेजी  तो दूर की बात हे ,हिन्दी में भी नी मिलेगा. मालवी का कुछ नमूना देखी लो - भड़का ,हेड़नो,नवरो, गेल्यो ,खार, जामण,एबला आदि।
आज जरुरत इनी वात की हे के मालवजन को याँ की बोली -बानी से जो रिश्तो बन्यो हुओ हे , ऊ में ओर गहराई ने मजबूती आनी चइये. बदलाव तो जिन्दगी ने प्रकृति को नेम - धरम हे, पन यो देखनो भी जरूरी हे के कहीं यो बदलाव हमारी मानवता ने केई सदियाँ में बनी - संवरी हमारी लोक- संस्कृति के नी मिटइ दे. आज हमारे मालवा की बोली, धरती ने याँ का लोगाँ का साथे याँ का  इतिहास ,पर्यावरण ,व्रत- पर्व -उच्छव ,लोक देवी - देवता, कथा -वारता, गीत -गाथा ,मेले -जत्रा ने  यूं कई सकां के सगली संस्कृति से जो रिश्तो हे , ऊके पेचानां ने ओर मजबूत कराँ . बोलान्गां ने  वापराँगा , तभी तो वन्चेगी मालवी ने याँ की संस्कृति , तभी हम जीवतां केलावांगा.
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3 टिप्‍पणियां:

  1. जय हो ...वृच्छ अनन्त सुनीर वहंत सु , सुन्दर सन्त विराजै तहीं तैं / नित्य सुकाल पडे न दुकाल , सु मालव देस भलो सबहीं तैं .

    राजेश भंडारी "बाबु"

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