रविवार, 22 जनवरी 2012

आधुनिक मालवी कविता के उन्मेषक नरहरि पटेल - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

नरहरि पटेल उज्जैन में रचना पाठ  करते हुए।साथ में  डॉ. शैलेंद्रकुमार शर्मा, डॉ. टी. जी.प्रभाशंकर प्रेमी व डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित।   

मालवी कविता में नया उन्मेष लाने वाले रचनाकार नरहरि पटेल

प्रो. डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
        
      भारत के हृदय अंचल की मीठी जुबान मालवी का चाहे लोक साहित्य हो या अभिजात साहित्य – उनमें मालवा की सहज और निश्छल अभिव्यक्ति के दर्शन होते हैं। यह साहित्य सदियों से मालवा के लोक-मानस को प्रतिबिम्बित करता आ रहा है। अन्य भाषाओं के समान मालवी में भी पद्य की शुरूआत पहले हुई। मालवी कविता का शुरूआती रूप कालिदास-शूद्रक आदि की प्राकृत-अपभ्रंश से लेकर राजा भोज के ग्रन्थों और रोड़कवि के राउलवेल काव्य में देखा जा सकता है। फिर इस काव्यधारा को गुरु गोरखनाथ, संत पीपाजी, सिंगाजी, रानी रूपमती, चंद्रखी, सुन्दर कवयित्री, अफजल सहित कई कवियों ने आगे बढ़ाया। आधुनिक काल में पन्नालाल नायाब, नवनिधि कुँवर खांगारोत, युगलकिशोर द्विवेदी, आनन्दराव दुबे, हरीश निगम, सुल्तान मामा, भावसार बा, गिरवरसिंह भँवर, नरेन्द्रसिंह तोमर, पूनमचंद सोनी, मदनमोहन व्यास, बालकवि बैरागी, नरहरि पटेल, पुखराज पांडे, मोहन सोनी, शिव चौरसिया, झलक निगम,नरेन्द्र श्रीवास्तव नवनीत, ललिता रावल, बंसीधर बंधु, राजेश रावल सुशील आदि जैसे अनेक कवियों ने इसे समृद्ध किया। गद्यकार के रूप में पं. सूर्यनाराय व्यास, श्रीनिवास जोशी, चन्द्रशेखर दुबे, डॉ. प्रहलादचन्द्र जोशी, डॉ. पूरन सहगल, ललिता रावल, डॉ. श्यामसुंदर निगम, सिद्धेश्वर सेन, डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित, डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा, संजय पटेल, डॉ. तेजसिंह गौड़, विश्वनाथ पोल, राधेश्याम पाठक उत्तम’, सतीश श्रोत्रिय, राधेश्याम परमार बंधु आदि ने मालवी साहित्य को आगे बढ़ाया। मालवी में गद्य और पद्य की अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। मालवी में पत्रिका प्रकाशन को भी गति मिली है। इसके साथ ही मालवी भाषा और साहित्य के विविध पक्षों पर शोध कार्य में भी तेजी आई है। कथित आधुनिकता के दौर में भी मालवी भाषा और उसके साहित्य का यहाँ लोक-जीवन, लोकमन और पर्यावरण के साथ गहरा रिश्ता बना हुआ है। मालवमना साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों के सद्संकल्पों से उसे और फलने-फूलने का अवसर आज मिल रहा है। मालवी में संस्कृत, हिन्दी सहित कई भारतीय भाषाओं के साहित्य के अनुवाद में भी तेजी आई है। कालिदास की कृतियों और श्रीमद्‌भगवद्‌गीता से लेकर रामचरितमानस और आधुनिक हिन्दी काव्य तक अनेक रचनाओं के मालवी में अनुवाद हुए हैं।

       आधुनिक मालवी कविता में एक साथ कई दृष्टियों से नवोन्मेष लाने वाले रचनाकारों में नरहरि पटेल का स्थान अप्रतिम है। 2 जनवरी 1934 को सैलाना, जिला तलाम के एक प्रतिष्ठित परिवार में जन्मे श्री पटेल की आरंभिक शिक्षा वहीं हुई। 16 वर्ष की आयु में वे इंदौर आ गये। एम.ए. , एल.एल.बी. तक की शिक्षा इंदौर में हुई और वे अभिभाषक और बाद में कर-सलाहकार बन गये। बचपन से उनके मन में लोक-कला, लोक-गायन और लोक-संस्कृति के प्रति लगाव रहा है। विविधायामी प्रतिभा से सम्पन्न व्यक्तित्व श्री पटेल कवि,  रंगकर्मी,  लेखक,  समीक्षक,  संस्कृतिमनीषी और गायक हैं। नाट्‌य क्षेत्र में नकी गहरी रुचि रही है। इंदौर नगर की रंग-गतिविधियों में वे सदैव सक्रिय रहे हैं। इंदौर में वे नाट्‌य संस्था इप्टा की स्थापना से जुड़े रहे, जो बाद में यवनिका बन गई। बाबा डिके के नाटकों से भी वे सम्बद्ध रहे। कलागुरु विष्णु चिंचालकर से भी उनका गहरा संपर्क बना रहा। अनेक नाटकों में अभिनय करने के साथ ही रंगमंच के कार्यों में वे निरंतर सक्रिय रहे हैं। आकाशवाणी के नाट्‌य- रूपकों में उन्होंने महती भूमिका का निर्वहन किया। विगत छह दशकों से उनकी काव्य-साधना निरंतर गतिमान है।
          नरहरि पटेल (1934) मालवी कविता के क्षेत्र में ध्वनि गीतकार एवं गजलकार के रूप में समादृत हैं।मत रो माता  और मालव की रात उनके मालवी गीत संग्रह हैं। थोड़ी-घणी,  सिपरा के किनारे एवं गुलमोरी धरती पटेलजी के मालवी गजल-संग्रह प्रकाशित हुए हैं। झुमको उनके मालवी गीत, कविता और गजलों का नायाब गुलदस्ता है। उन्होंने हिन्दी में भी सृजन किया है। उजाला दो, गीत गंगा और मन-मुरली उनके प्रमुख हिन्दी कविता संकलन हैं। पटेलजी ने आनंदराव दुबे के काव्य संकलन रामाजी रइग्या ने रेल जाती री, श्रीनिवास जोशी के गद्य संग्रह-वारे पट्‌ठा भारी करी  तथा नरेन्द्रसिंह तोमर के तीन संकलनों का सम्पादन भी किया है।
       श्री पटेल ने स्वातंत्र्योत्तर भारत में नवनिर्माण, श्रम और वीरोचित उत्साह के जागरण के लिए मालवी एवं हिन्दी में काव्य-सृजन की शुरूआत की। प्रथम चरण की उनकी मालवी कविताओं में राष्ट्रीय भावना के साथ-साथ मालवा के लोक-जीवन से जुड़े कई आयाम उभरते दिखाई दिए। इसी कड़ी में उन्होंने मालवी लोकधुनों पर आधारित अनेक मर्ममधुर गीत भी रचे। प्रणय और प्रकृति-सौंदर्य के अनेकानेक संदर्भों को उन्होंने बड़ी कुशलता से अपने काव्य में पिरोया है। बोल्यो कागो कजरारो जी, बिरहण को बारहमासा, आयो फागणियो, जुगल गीत, गोरी तीर नैण का, झुमको जैसे गीतों को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। उनके श्रम एवं प्रयाण गीतों ने भी मालवजन को पर्याप्त उत्प्रेरित किया। इस श्रेणी के गीतों में जारे रण में, म्हारो फूलाँ वारो देस, करज को चुकावणो करो, अब काम करो रे भैया, सीमा पे तू वेगो वेगो चाल, कैसी खेती उगई हो राम, कल-द कल, आई उजाली पूरब वाली आदि उल्लेखनीय हैं। उनकी अधिकांश रचनाएँ वाचिक परंपरा के वैशिष्ट्य का संवहन करती हैं । इसीलिए उन्हें रूबरू सुनना एक अद्वितीय दृश्य- श्रव्य अनुभव होता है।   
       अपनी ग़ज़लों में उन्होंने लोक मन और लोक-जीवन में आ रहे परिवर्तनों के साथ-साथ समसामयिक राजनीतिक-सामाजिक विसंगतियों पर सार्थक टिप्पणी की है। ध्वनिगीत और हाइकू जैसे माध्यमों को भी उन्होंने बखूबी साधा है। उनकी काव्य-यात्रा के पूर्वार्द्ध के मर्मस्पर्शी मालवी गीत और कविताएँ मत रो माता और मालव की रात में संकलित हैं। उत्तरार्द्ध के गीत, गजल, हाइकू ,ध्वनिगीत जैसी विविध विधाओं की रचनाएँ थोड़ी घणी ,गुलमोरी धरती, सिपरा के किनारे और झुमको में संकलित हैं। उनका मन मालवी लोक-संस्कृति के रस-रंगों से सराबोर है। वे मालव की रात का आनंद सबको बाँटना चाहते हैं।
                             चंग झाझर धक ढोल मंजीरा
                  चंचल चित मत वे मतिधीर/ होरी में हुड दंग रंगीला
                             नत नत का तेवार/ मालव की राताँ में....
                पंथीड़ा परभाते जाजो/ मालव की मत रात भुलाजो
                             जाजो पर या बात निभाजो/ आजो जी बारम्बार
                             मालव की राता में/ हे चाँद कुमुदणी को प्यार/ मालव की राताँ में
       भावुकमना श्री पटेल ने पारिवारिक रिश्तों को लेकर कई हृदयग्राही कविताओं की रचना की हैं। माँ, ममता, बापू, दादी, हीरा-मोती, बेटो, बेटा को जनम, बेटी, पीहर-वाट, भुवा आदि इसी प्रकार की रचनाएँ हैं। दादी का मर्मस्पर्शी चित्र देखिए-
                             सुमरणी हाथ में, आँखयाँ में भर्‌या सोरमघट
                             चुगाती चरकला दादी दया की भण्डारण
                             अबोली बावड़ी उँडी, वरद की पोटली जूनी
                             खुणा में सादड़ी सुखी पड़ी हे आपणी दादी।
       यद्यपि नरहरि पटेल ने मालवी में कविता,गीत, गजल, हाइकू आदि सभी कुछ लिखा है, पर उनकी खयाति एक गीतकार और गजलकार के रूप में अधिक है। मालवी में चली आती हुई गजलों की परंपरा और उर्दू गजल के सामंजस्य से पटेलजी ने मालवी में गजल रचना को आगे बढ़ाया। उन्होंने प्रचुर परिमाण में गजलें लिखी हैं। उनके गीतों और गजलों में ताजातरीन सौन्दर्यबोध है। उनमें मालवा की काली मिट्‌टी की गंध स्पष्ट रूप से अनुभव की जा सकती है। यहाँ के लोक-जीवन में जैसी फसलें पकती हैं, उसका  वैसा ही रूप इनकी रचनाओं में उतरा है। गेहूं, चना, अलसी और मक्का के खेतों की सहज सुंदरता कवि मन को बाँधती है। खिलते पलाश उन्हें मुग्ध करते हैं। गन्ने की चरखी से उठती मीठी-मीठी गंध उन्हें आकर्षित करती है और वे उन्हें अपनी रचनाओं से चित्रित करते हैं। बच्चों के खेल-गीतों की तर्ज को आधार बनाकर वे जीवन-मर्म को साकार करने का माद्दा भी रखते है। चर्चित गीत छोटी – छोटी मच्छी किरो पाणी में वे जल की गहराई बढ़ने के साथ कालचक्र में बंधे बचपन, जवानी और बुढ़ापे को जीवंत कर जाते हैं-   
                                                   छोटी – छोटी मच्छी किरो पाणी/ किरो पाणी ?
म्हे नी बतावां लावों गुड-धानी/ लो गुड-धानी
यो सरवर तीर किनारो हे । बस घुटना-घुटना गारो हे
भई पाणी की बलिहारी जी। झलमल हे प्यारो प्यारो हे
लो आओ बतावां इतरो पाणी। ब ब ब ब हप्प, घूघर मार धमीर को ...
         श्री पटेल की काव्य-भाषा में मुहावरों-कहावतों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है। सादगी और सहजता से भरी भाषा में प्रयोगधर्मिता भी दृष्टिगोचर होती है। उनकी रचनाओं में मालवा के गाँवों का समस्त परिवेश - घर- आँगन, खेत-खलिहान, ग्रामीणों के दैनिक कार्य-कलाप की मर्मस्पर्शी बुनावट है। पारिवारिक रिश्तों की गरमाहट के बीच जब वे अपने बालपन के चित्र सघन ध्वन्यात्मकता के साथ बुनते हैं, तब लगता है पूरा मालवा उनके साथ झूम रहा हो-
                चरर मरर, चरर मरर, चरखो चाले
                दादी थारो चरखो चाले
               कारी कारी गाय को धोरो धोरो दूध रे भई
               भर्या भर्या माटला तायो तायो दूध रे भई
               मचमचाती माटली छपछपाती छाछ रे भई
               कसमसाती कांचली चमचमाती खांच रे भई
               घमड़-घमड़ घमड़-घमड़ जावण वाजे
               भाभी थारो बेरको हाले ....     
          नरहरि पटेल मालवी लोक जीवन के विविध रंगों-रूपों को उकेरने वाले सहज कवि हैं। उनकी रचनाओं में लोक गंध, राष्ट्रीय भावना और सांस्कृतिक चेतना के साथ मानवतावादी विचारधारा के दर्शन होते हैं। रजवाड़ी की झलक लिए उनकी मालवी मीठा प्रभाव छोती है। आधुनिक मालवी कविता-धारा में उनका विशिष्ट स्थान है। लोकमनीषी रामनारायण उपाध्याय ने ठीक ही लिखा है-नरहरि पटेल के गीत,  गजल और उनमें निहित मालव माटी की महक मंत्रमुग्ध कर देती है, जैसे रेगिस्तान में पानी बरस जाय,  भरी दुपहरिया में नंगे पाँव ऊब –खाब पगडंडी पर चलते कोई बदली आशीर्वाद बनकर सिर पर अपना वरदहस्त रख दे।
       माँ की वंदना गीत के जरिये नरहरि पटेल ने जननी जन्मभूमि की अपार महिमा को उकेरा है। इस गीत में उन्होंने प्रकृति के उदात्त और महिमाशाली रूप की झांकी प्रस्तुत कराते हुए चराचर जगत को एकरस कर दिया है, वहीं धरती माँ के दाय को याद कराते हुए उसे परिश्रम के पाट पर विराजने की मनुहार करते हैं ।

नरहरि पटेल उज्जैन में रचना पाठ  करते हुए




म्हें तो वारी वारी जाऊँ मात ये 
थारी मेहमा अपरम्पार ये 
म्हें तो वारी वारी जाऊँ 
धरऊ दिसा में परबत राजा

चँवर ढुलावे माई थारे जी ओ


चाँद-सुरज थारी करे हे आरती


सागर चरण पखारे जीओ


म्हें तो वारी वारी जाऊँ मात ये


थारी महिमा अपरम्पार ये।
लाऊ झाऊ लाऊ झाऊ फसलाँ आवे
खेताँ में नी मावे जीओ
मेनत को जद फल पावेतो
मनवो कईं कईं गावे जीओ
म्हें तो वारी वारी जाऊ मात ये
तू सब की हे भरतार ये।

       मन में संकलप सम्प का धारूँ
          अखत बीज का बावूँ जी ओ
          धूप दीप तो साँच प्रेम का
          सुख का फल जद पाऊँ जीओ
          म्हें तो वारी वारी जाऊँ मात ये
          तू श्रम के पाट पधार ये। (मत रो माता संग्रह से)
       
          आई उजाली पूरब वाली रचना में वे मेहनत को पूजने का संदेश देते हैं, क्योंकि वही मनुष्य का भाग्य बनाता- संवारता है।

नरहरि पटेल  रचना पाठ  करते हुए
      आई उजाली,  पूरब वाली
      आओ रे गावो रे
      धन धन हे गऊ का जाया
      खेत हँकावो रे
      इन्दर राजा बाजा बजावे
      बीज वोवावो रे
      उठो रे प्यारी सोना की क्यारी
      गाड़ी भरावो रे।
    घर घर का सब हाँ भैया
      कोई नी दूजो रे
      आओ रे आओ रे ढोल बजाओ रे
      मेनत पूजो रे
      भूमि हे वाली,  या रखवाली
      देव बधाओ रे।
    भूमि को आसीस बड़ो सब
      सीस चढावो रे
      छत्तर माँ को ऊँची करो ने
       हाथ बढाओ रे
       नवी नवेली लावो हथेली
       भाग लिखावो रे। (मालव की रात संग्रह से)
          गुलमोरी धरती तो उनके लिए अपने प्राण जैसी है, जिस पर सभी को गर्व होना चाहिए। इस गीत में श्री पटेल भारत माता का शृंगार करते किसान , भोले- भाले भारतवासी, सुख- संतोष का पाठ पढ़ाते संत- फकीर और तृप्ति का अनुभव करते अतिथि- सब को एक लय में बांधते हैं।  
       म्हारी गुलमोरी धरती, गुल क्यारी धरती-प्यारी हे म्हारी जान
          म्हारी चाँदी री धरती, सोना री धरती-वाली हे म्हारी जान।
          अन धन दाता भारत माता बेटा थारा करसाण
          मन का राजा मस्त फकीरा नेक कसा इन्सान
          म्हारी दूधाँरी धरती,  पूताँरी धरती-प्यारी हे म्हारी जान
          म्हारी चाँदी री धरती सोना री धरती-वाली हे म्हारी जान।
          मीरा रा मंदर मस्त कलंदर चौपाला में तान
          घट-घट में संतोस समायो धापीग्या मेहमान
          म्हारी संता री धरती, वजंता री धरती-प्यारी हे म्हारी जान
          म्हारी चाँदी री धरती, सोना री धरती-वाली हे म्हारी जान।
          कस्ती डुबी नी हस्ती मिटी नी ऊँची थारी शान
          परमाणु री हाँक लगी तो थर्रइग्यो यो जहान।
          म्हारी वीराँ री धरती,धीराँ री धरती-प्यारी हे म्हारी जान
          म्हारी चाँदी री धरती, सोना री धरती-वाली हे म्हारी जान। (गुलमोरी धरती संग्रह से)
       फूल बनड़ो में उन्होंने लोक में प्रचलित पारंपरिक बन्ना गीत को नया अंदाज दिया है। बन्ने के रूप-सौंदर्य को उन्होने जहां चंद-सूरज से आँका है , वहीं उसकी मनभावनी बातों को भी बड़ी शालीनता से मूर्तिमन्त किया है।  
          म्हारो फूल बनड़ो / फूल बनड़ो-दिलजानी बनड़ो
          म्हारो गेंद बनड़ो / गेंद बनड़ो-दिलदानी बनड़ो।
          ईंकी वास हे घणी सुवाणी, ईकी वात हे घणी लुभाणी
          ईंका रूप को तोल नी ताणी-यो सोमाणी बनड़ो।
          यो तो सूरज जाणे चमके, यो तो चंदो जाणे चमके
          यो तो ध्यानी जेसो दमके-यो गुणज्ञानी बनड़ो।
          आधी राते चंदो आवे, आखी आखी रात सतावे
          म्हारे सिरहाणे लंग जावे-यो रूमानी बनड़ो।
          जाणो हो पटेल यो छोरो, प्यारो प्यारो गोरो गोरो
          छोरो लागे भोरो भोरो - यो नादानी बनड़ो। (झुमको संग्रह से)  
       उनकी ग़ज़ल के शेर थोड़े में बहुत कुछ कहने-समझाने की ताकत रखते हैं। उन्होंने अपनी गज़लों को मानवीय विकलता की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। छोटी-बड़ी सभी बहरों की ग़ज़लें उन्होंने की हैं, जहां रदीफ़ –काफ़िये के निर्वाह के साथ सांकेतिकता और संक्षिप्तता विशेष प्रभाव जमाती है। उर्दू गज़ल के व्याकरण से अनुशासित होने के बावजूद वातावरण और मानसिकता की दृष्टि से उनकी गज़लों को खालिस मालवी ग़ज़ल कहा जा सकता है। अपनी गज़लों में कहीं उनका मन इंसान के निजी और अंतरंग क्षणों को उकेरने में रमा है, तो कहीं वे व्यापक सामाजिक सरोकारों को बड़ी शिद्दत से उभारते हैं। खासतौर पर वे दिनों-दिन छीजते सहज  प्रेम, पारस्परिक सद्‌भाव और सहज उल्लास को फिर से नया उन्मेष देना चाहते हैं। मालवा के देशज मुहावरे और बिंबों ने उनकी गज़लों को जमीनी सचाई से सराबोर किया है, वहीं उन शेरों की सांकेतिकता को और गहराया है। उनकी एक  मालवी ग़ज़ल के चंद शेर देखिए-
       लगई लो जोर को हाको लगई ने देखो तो,
                जगेगा कोई तो देखो जगई ने देखो तो।
                अँधारी रात हे चमकादडाँ हे बंद कपाट,
                नकूचा भेद का तोडो तुई ने देखो तो।
                चरकली एक पडीगी तपती जंगल में,
                दया से हाथ में राखो उई देख तो लो।
       जरा सी प्रेम की पुड़िया हे देवता को प्रसाद,
                सबा ने प्रेम से वाँटो वँटई ने देख तो लो।
                जुदा जुदा जो उड्‌या आपणा कबूतर हे,
                बुलई ने खाँख में राखो बुलई ने दे तो लो।
                कदी पटेल चुभीगी वे वात, माफ करो,
                कदी जो वाँक वे म्हाको भुलई ने देख तो लो। ('थोडी घणी' संग्रह से)
       जाहिर है नरहरि पटेल मालवी कविता धारा में एक विलक्षण उपस्थिति बन गए हैं। मालवी कविता का पाट चौड़ा करने में उनकी भूमिका अद्वितीय रही है। उन्होंने बंधी-बंधाई लीक से हटकर चलते हुए अपनी राह खुद बनाई है । ऐसा करते हुए वे लोकधारा को न सिर्फ आयत्त करते हैं, उसे पुनराविष्कृत भी करते चलते हैं। वे मालव माटी की सौरम को अपनी रचनाओं से गमकाते हैं, जीवन के उन क्षणों की याद दिलाते हैं, जिन्हें छोड़ मनुष्य जाने- अनजाने एक अंधी दौड़ में शामिल हो गया है।        
कसा चहकता था चरकला, कई याद हे के नी या हे
मस्ती में गम्मत रतजगा, कई याद हे के नी या हे।
चमचम चमकता था आँगन, चोखूंट मंडता था मांडणा
बचपन का घुघरा चुरवणियाँ, कई याद हे के नी या हे।
                                
प्रो. डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा

डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा , श्री पटेल, डॉ. देवेंद्र जोशी और डॉ. राजपुरोहित के साथ
       प्रोफेसर एवं कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन

एफ -2/27 ,विक्रम विश्वविद्यालय परिसर, उज्जैन [म.प्र.]

email:shailendrasharma1966@gmail.com
                                   

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