मालव भूमि की विराट शब्द-यात्रा: अक्षर पगडंडी
डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
मालवी साहित्य और संस्कृति के अन्यतम हस्ताक्षर श्री झलक निगम (1940-2010 ई.) एक साथ अनेक दिशाओं में सक्रिय थे। उन्होंने मालवी को कई दृष्टियों से समृद्ध किया है। एक ओर उन्होंने मालवी साहित्य को अनेक महत्त्वपूर्ण कविताएँ और गद्य रचनाएँ देकर समृद्ध किया, वहीँ एक श्रेष्ठ अनुवादक, संपादक, शोधकर्ता के रूप में विविधमुखी अवदान दिया। उनकी रचनाओं में प्रयोगधर्मिता उभार पर है, जिसके लिए वे विशिष्ट पहचान रखते हैं। झलक जी का कौशल सर्वथा, अनछुए, अलक्षित विषयों को कविता में ढालने में दिखाई देता है। वे दिनों दिन बढ़ते कथित महानगरीकरण में ओझल होते लोक-जीवन के उन दृश्यों को अनायास पकड़ लेते हैं, जो हमारी जैविकता के प्रमाण रहे हैं। उनके मालवी कविता संग्रहों में ‘एरे मेरे की कविता’ (2003 ई.) एवं ‘उजालो आवा दो’ (2006) विशेष उल्लेखनीय हैं। ‘भाँत भाँत की कविता’ शीर्षक एक संग्रह उनके निधन के बाद 2011 में प्रकाशित हुआ। झलक निगम उन कवियों में एक हैं, जिन्होंने मालवी कविता की बनी-बनाई लीक को तोड़ने की कोशिश की। साथ ही अपने ढंग से उसे नए सिरे से बनाने की कोशिश भी की। मालवी या किसी अन्य लोक बोली में श्री निगम जैसे साहसी कवि कम ही नजर आते हैं, जिन्होंने पुराने और नए दौर की लोक कविता के बीच सेतु की भूमिका निभाई है। उनकी रचनाधर्मिता वर्ण्य-विषय और भाषा की एक नई दुनिया खोलती है। छन्द और लय के संस्कारों के बावजूद लोक-कविता को छंद से मुक्त करने से लेकर नई संवेदनाओं और नए विचारों को नए अंदाज में व्यक्त करने के झलक जी के प्रयत्न महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुए।
मालवी में स्वतंत्र पत्रिका के अभाव की पूर्ति सबसे पहले नरेन्द्र श्रीवास्तव ‘नवनीत’ एवं झलक निगम के संपादन में प्रकाशित ‘फूल-पाती’ से हुई, जिसके अब तक कई अंक प्रकाशित हो चुके हैं। इसी कड़ी में श्री झलक निगम के संपादन में वार्षिक पत्रिका ‘जगर मगर’ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। उनके निधन के बाद श्री निगम की सुपुत्री जेड. श्वेतिमा निगम इसका कुशल संपादन कर रही हैं। ‘जगर मगर’ के अनेक विशेषांक प्रकाशित हुए हैं। झलक जी द्वारा संस्थापित मालवी की इन अव्यावसायिक पत्रिकाओं के प्रकाशन से आज इस क्षेत्र में बहुत बड़े अभाव की पूर्ति हो रही है।
झलक निगम लम्बे समय से मालवी की विशिष्ट शब्दावली पर कार्य कर रहे थे। उन्होंने सुगम राजपथ पर न चलते हुए अक्षर की पगडण्डी पर चलना स्वीकार किया। उनकी इस अत्यंत परिश्रमपूर्वक की गई यात्रा की उपलब्धि है यह पोथी। ‘अक्षर पगडंडी’ शीर्षक ग्रन्थ झलक जी के जीवन की बड़ी साध और साधना का साकार रूप है, जिसकी पूर्णता के लिए उन्होंने दशकों तक कार्य किया। गाँव-गाँव, डगर-डगर घूमते हुए वे एक सजग शब्द-संग्राहक के रूप में अपनी झोली भरते रहे और फिर एक जिज्ञासु की तरह उन शब्दों की व्युत्पत्ति, काल-प्रवाह में आए अर्थ परिवर्तन की मीमांसा करते रहे। यह सुखद है कि उनकी सुपुत्री जेड. श्वेतिमा निगम ने उनकी डायरी और अलग-अलग पन्नों में बिखरे इन शब्द-मोतियों को सँजोने का सार्थक उद्यम किया है, जो हमारे समक्ष है।
झलक जी स्वयं मालवी के विशिष्ट शब्दों, मुहावरों और कहावतों के सजग प्रयोक्ता भी रहे हैं। जीवन से कविता तक वे मालवी की समृद्ध शब्द-राशि का अर्थपूर्ण इस्तेमाल करते रहे। इसीलिए झलक जी की कविताएँ सही अर्थों में लोक हृदय का सार्थक प्रतिबिंब बन पड़ी हैं। वहाँ हमारे युग जीवन की आहट और सामयिक दबाव तो कारगर दिखाई देते ही है, इनसे परे जीवन के शाश्वत प्रवाह के साथ बहने का, मालवा के ऋतु-रंग और पर्यावरण में डूबने का सहज व्यापार भी मुखरित हुआ है। उनकी एक कविता में मालवी शब्दावली के सजग प्रयोग से सम्पन्न परिवेश के साथ काले बादल का खिलदंड़ापन हमें उसी तरह आनंदित करता है, जैसा किसी धरती पुत्र किसान या कामगार को। कवि हमें उसके स्वागत में मालवी लोक-संस्कृति के आचार-व्यवहार के साथ ला खड़ा कर देता है।
घणा हऊ बखत पे आया हो
म्हूँ गाम का आड़ी तो
तमारे नारेल चड़ऊँ
दूध ढोलू
दूध ढोलू
अगवानी में कंकू अखत चड़ऊँ
ओ झरता झरमट करता बादला
इसी तरह भारतीय समाज व्यवस्था के विसंगत चेहरे का साक्षात् कराती ‘हाली प्रथा’ को कवि श्री निगम ने चीन्हा और उसे अपनी कविता में साकार किया। वे देखते हैं कि आज भी बड़ी संख्या में हाली हैं, जो बंधुआ मजदूर से भी बदतर जिन्दगी जी रहे हैं। उन्हें न दिन में चैन है और न रात में आराम। उस पर यह कहावत ‘‘हाली मवाली को कई है या जात भरोसे का लायक होयज नी है।’’ हाशिये के ऐसे यशहीन लोगों की व्यथा को कवि ने गहरी सहानुभूति के साथ उकेरा।
घाणी का बैल जस भमता रेवे
फेर भी जस कोनी हाली का भाग में
दुनियां काँ जई री, ऊन्के नी मालम
देस में कून राजा कुन पाल्टी को राज।
लोकभाषाओं के शब्दकोश तो अनेक बने हैं, किन्तु विशिष्ट शब्दावली, जिसमें पारिभाषिक शब्दावली भी समाहित होती है, के विवेचनात्मक परिचय को लेकर बहुत कम कार्य ही हुए हैं।राजस्थानी, भोजपुरी, अवधी, ब्रजी जैसी कुछ लोकभाषाओं में इस तरह का कार्य हुआ है। मालवी में कथाकार स्व. चंद्रशेखर दुबे ने ‘जिंदगी के गीत’ पुस्तिका में इस तरह के चुनिन्दा शब्दों का संकलन कर परिचय दिया था। उसी पथ पर आगे चलकर श्री झलक निगम ने मालवी में इस तरह की विशिष्ट शब्दावली के संग्रह के अभाव की पूर्ति ‘अक्षर पगडंडी’ के माध्यम से की है।
लोक के शब्द लंबी यात्रा करते हैं। झलक निगम द्वारा तैयार इस कोश में ऐसे कई शब्द हैं जो काल प्रवाह में गति करते हुए अपनी पहचान को बरकरार रखे हैं। जैसे दान के रूप में अर्पित की जाने वाली अखोती, अक्षत का ही रूप है। पंचामृत दूध, दही, घी, शहद और शकर के मेल से निर्मित प्रसाद है तो पंजेरी पिसे हुए धनिये के साथ शकर या गुड़ का मिश्रण है, जो कृष्ण जन्माष्टमी पर पूजा में अर्पित किया जाता है। काशी जाना यज्ञोपवीत के अवसर पर विद्याध्ययन के लिए प्रवृत्त होने का प्रतीक है, वहीं पस्ताव तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान की क्रिया है, जो अपशकुन से बचाव के लिये की जाती है। इसमें तीर्थयात्री अपना सामान पहले किसी परिचित के यहाँ रख देते हैं, बाद में वास्तविक यात्रा प्रारम्भ करने पर वहीं से सामान उठा कर चल देते हैं।
इस शब्द संचयन में संकलित शब्द कई प्रकार के हैं। उदाहरण के रूप में कृषि एवं व्यवसाय संबंधी, पारंपरिक ज्ञानविज्ञानपरक, लोकाचारपरक, संस्कारपरक, क्रीड़ा, कला एवं मनोरंजनपरक, लोक-देवता एवं पर्वोत्सव संबंधी, वस्तु संबंधी, विशिष्ट क्रियापरक, शृंगार एवं वस्त्राभूषण संबंधी, लोक-विश्वासपरक आदि। संग्रह के बहुत से शब्द मालवा में प्रचलित लोकाचारों का संवहन करते हैं। उदाहरण के रूप में संजा, मांडना, हिरणी, वलसो,मौसर, नातरा, तेड़ा, मांडवो, जलवा, आदि। क्रीड़ा, कला एवं मनोरंजनपरक शब्दों में सतोलिया, माच, छुपमछई, कामण आदि को देखा जा सकता है। कृषि एवं व्यवसाय संबंधी विशिष्ट शब्दों में वखार, वावस्यां, निहरनी आदि उल्लेखनीय हैं। शृंगार एवं वस्त्राभूषण संबंधी शब्दों में कांकण, कांचली, ओढ़नी आदि को देखा जा सकता है।
झलक जी ने कई विलुत होती परम्पराओं, रीति-रिवाजों और वस्तुओं से जुड़े पारिभाषिक शब्दों को भी इस कोश में स्थान दिया है। हीड़, बेकड़ली आदि इसी प्रकार के शब्द हैं। बेकड़ली घर-घर जाकर अनाज मांगने की प्रथा है, जो अब लगभग विलुप्ति के कगार पर है। हीड़ मालवा की प्रबन्धात्मक वीरगाथा है, जो बगड़ावत के रूप में सुविख्यात है।
इस संग्रह में कई पारंपरिक ज्ञान-विज्ञानपरक शब्द भी संचित हैं, जैसे चींटियों के आवास को मालवी में कीड़ी नगरा कहा जाता है। मगर-कोदो वह पौधा है, जो जलराशि के किनारे पनपता है और उसे मगर बड़े चाव से खाता है। थुवर, थाला, थाग, तेलन (एक विशिष्ट कीड़ा), छुईमुई, छेक, घट्टी की माकड़ी, गोयरा, काबर, ओरा, हात्या आदि भी इसी प्रकार के हैं, जिनसे पारंपरिक ज्ञान का संवहन होता आ रहा है।
समग्रतः यह पोथी एक लोक-मनीषी की शब्द साधना का साकार रूप है। इस संचयन के लिए झलक जी ने बड़ी दुरूह राह अपनाई थी। मालवीप्रेमियों, साहित्यकारों के साथ ही आने वाले शोधकों के लिए उनका यह प्रयत्न अत्यंत उपयोगी और प्रेरणास्पद सिद्ध होगा, इसमें कोई संदेह नहीं।
प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं कुलानुशासक