- डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा

जद कभी भारतीय समाज के करवट लेवा की जरूरत हुई , तब कोई- नी -कोई परिवर्तन करवा वालो महापुरुष उठ खड़ो हुओ । ऐसा महापुरुषहुन की कड़ी में स्वामी विवेकानंद अपना ढंग का अनूठा व्यक्ति था । उना ने सामाजिक परिवर्तन को सतही तौर पर नी लियो थो ओर नी इके इकहरो मान्यो । वी परिवर्तन के समग्रता में लेवा की वात करता था । जद उना की निगाह अपना पेलाँ या साथ का सुधारकहुन के काम पे गईं, तब वी उन सुधाराँ के अधूरेपन के पेचानी ग्या । उना ने अपना ढंग से सामाजिक पुनर्रचना को आह्वान कर्यो ने उका साकार करवा वास्ते आजीवन लगा रिया । वी इनी बात के भलीभाँति जानता था के मानवीय सभ्यता से जुड्यो कोई भी अंग अचानक नी बने हे , उका पाछे लम्बी क्रिया रे हे । जद कदी उके बदलवा की कोशिश होए भी तो पेलाँ गहराई से विचार होए , फिर हमारी निगा मूल पर भी रेनी चईए । इनी वास्ते वी केवे हे , ‘‘म्हूँ मनुष्य जाति से यो मान लेवा को अनुरोध करू हूँ के कई बी नष्ट नी करो। विनाशक सुधारक लोग संसार को कई भी उपकार नी करी सके । किनी वस्तु के तोड़ के धूल में मती मिलाओ, उको गठन करो। यदि हुई सके तो सहायता करो, नी तो चुपचाप हाथ उठई के खड़ा हुई जाओ ने देखो, मामला कां तक जाए हे । यदि सहायता नी करी सको तो नाश मती करो।’’ स्पष्ट हे स्वामीजी विनाशक नी , रचनात्मक समाज सुधार का पक्ष में हे , जो उनाँ के अपना दोर का समाज सुधारकहुन से अलग बनाए हे ।
स्वामी जी सुधार आंदोलनहुन को वर्गीय चरित्र के पेचानता था । इनी वजह से सामान्य मनख को उनसे दूरी को रिश्तो बन्यो रियो ने वी लोकव्यापी नी हुई सक्या । वे केवे हे , ‘‘ गत सदी में सुधार वास्ते जो भी आंदोलन हुआ , उनमें से अधिकतर ऊपरी दिखावा सरीका था । उनाँ में से सगला केवल प्रथम दो वर्ण से ही जुड्या रिया , बाकी दो से नी । विधवा-विवाह का सवाल से सत्तर प्रतिशत भारतीय औरतां को कोई रिश्तो नी हे । ओर देखो, म्हारी बात पे ध्यान दो, इनी प्रकार का सगला आंदोलन को रिश्तो भारत का केवल उच्च वर्ण से ही रियो हे । जो साधारण मनख को तिरस्कार करी के खुद भण्या हे ।’’ जाहिर हे स्वामी जी की दृष्टि उन सगला सुधार आंदोलन पे थी, जो बगैर लोक की ताकत जगई के चलाया गया ने आखर में असफल हुई ग्या । वी समाज सुधार का लिए पेलो कर्तव्य माने हे – लोगाँ के शिक्षित करनो । ‘यो कार्य जद तक अधूरो हे , तब तक इंतजार करनो पड़ेगा ।’ स्वामी विवेकानंद का यह विचार आज भी प्रासंगिक बन्यो हुओ हे । किनी भी बदलाव के साकार करवा का पेलाँ वी चावे हे के देश के संगठित करवा को प्रयास होए , ‘‘आग जड़ में लगई ने उके फेर ऊपर उठवा दो ने एक आखो-पूरो भारत के संगठित करो।’’ जाहिर हे के स्वामी जी को यो आदर्श आज भी सामाजिक परिवर्तन की सई दिशा तय करी सके हे ।
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स्वामी विवेकानंद के भारत की मूल शक्ति आध्यात्मिकता पर गेरो विश्वास थो। उना की या आध्यात्मिकता कोई संकीर्ण अर्थ वाली आध्यात्मिकता नी हे , बल्कि उमें धार्मिक अंध नियमहुन से मुक्ति की इच्छा हे , संपूर्ण ने सर्वव्यापी आत्मा को बोध हे । वां नानात्व में बसी एकता को राज हे। इसी वास्ते जद वी सामाजिक बदलाव को आदर्श प्रस्तुत करे हे , तब उनकी निगा आध्यात्मिक बोध पे भी टिकी री है। वे बोले हे , ‘‘सगला स्वस्थ सामाजिक बदलाव अपना भीतर काम करवा वाली आध्यात्मिक शक्तिहुन को व्यक्त रूप होए हे , ने यदि ये बलवान ने व्यवस्थित होए , तो समाज अपने आपके इनी तरा ढाल ले हे ।’’ उनको समाज सुधार ऊपरी नी हे , ऊ अध्यात्म की पक्की जमीन पे टिक्यो हे , ‘‘तथाकथित समाज सुधार का बारा में दखल मत दिजो , क्योंकि पेलाँ आध्यात्मिक सुधार हुआ बिना दूसरा किनी भी तरा को सुधार नी हुई सके।’’ इनी के वी आमूल सुधार माने हे । इना का अभाव में स्वामी जी का पेलाँ का सुधार आंदोलन ठोस परिणाम नी लई सक्या था ।
भारत का सामाजिक बदलाव में समाज सुधारकहुन की भूमिका पे विचार करता विया स्वामी विवेकानंद उनाँ से केई अपेक्षा करे हे , जिना के बगैर कोई भी परिवर्तन सफल नी हुई सके। उना की दृष्टि में एक सुधारक में गेरी सहानुभूति वेनी चईए, तभी वी गरीबी ने अज्ञान में डूब्या करोड़ों नर-नारीहुन की पीड़ा का अनुभव करी सकेगा। वी सुधारकहुन में सेवा-भावना केजरूरी माने हे। स्वामी विवेकानंद भारत की सामाजिक जड़ता ने अवनति का प्रमुख कारण का रूप में मौलिकता के अभाव के देखता था । वी माने हे कि नवा करवा की हमारी ताकत नष्ट हुई गी हे । वी अपना युग पे निगा डालता विया केवे हे , ‘‘अन्न बिना हाहाकार मची रियो हे । पर दोष किना को हे ? इको प्रतिकार करवा की तो कई भी कोशिश नी हुई री हे, लोगबाग बस चिल्लाता रेवे हे । अपनी झोंपड़ी के बाहर निकलकर क्यों नी देखे के दुनिया का दूसरा लोगबाग किनि तरा उन्नति करी रिया हे । तब हिवड़ा का ज्ञाननेत्र खुली जाएगा ने जरूरी कर्तव्य की तरफ ध्यान जाएगो ।’’
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विवेकानंद ने भारत का नव परिवर्तन को विराट बिंब रच्यो हे , जो सदियां की जड़ता के त्यागी के ज अइ सके हे , पेलाँ वी खुद के मिटावा को आह्वान इनी अर्थ में करे हे - तम लोग शून्य में विलीन हुई जाओ ने फेर एक नयो भारत निकल पड़े। निकले हल पकड़ी के , करसान की झोपड़ी भेदी के , जाली, माली सगला लोगाँ की झोपड़ी हुन से। निकली पड़े बनियाहुन की दुकानाँ से, भुजवा का भाड़ का पास से, कारखाना से, हाट से, बाजार से। निकले झाडीहुन , जंगलाँ , पहाड़ ने पर्वतहुन से। इन लोगाँ ने हजार साल तक चुपचाप अत्याचार सहन कर्यों हे - उससे ली हे सहन करवा की अनूठी ताकत । सनातन दुःख उठायो हे , जिससे पइ हे अटल जीवनी शक्ति। ये लोग मुट्ठीभर सत्तू खई के दुनिया के उलटी दई सकेगा । आधी रोटी मिली गी तो तीन लोकाँ में इतरो तेज नी अटी सकेगा ? ई रक्तबीज का प्राणहुन से भरया हे ने पायो हे सदाचार , बल जो तीनी लोक में नी हे ।’’ (खण्ड-8, पृ. 167) आज का दौर में स्वामी विवेकानंद की या आवाज सुनी जानी चहिए, नी तो भारत की दुरावस्था को सिलसिलो खतम नी वेगा ।
संपर्क: डा.
शैलेन्द्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं कुलानुशासक
विक्रम
विश्वविद्यालय
उज्जैन (म.प्र.) 456 010