मध्य प्रदेश के पश्चिमी भूभाग और राजस्थान के पूर्वी क्षेत्र को मालवा के नाम से जाना जाता है. इसी मालव प्रदेश की मर्म मधुर बोली मालवी लोकाभिव्यक्तियों की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है. इसी क्षेत्र की महिमा को संस्कृति मनीषी डॉ.भगवतीलाल राजपुरोहित ने मालवी में कुछ इस तरह प्रस्तुत किया है.
डॉ.भगवतीलाल राजपुरोहित
मध्यप्रदेश का मालवा की भाषा-बोली मालवी है। माल ऊँची पठारी भूमि के केवे। मालवा का गाम में दो तरे की जमीन केवाय। अडाण ने माल। पीयत अडाण ने वना पीयत माल। तो माल वालो मालवो केवाणो। मतलब यो के याँ वना पीयत से भी फसलाँ वेती री। अणी से नद्याँ छोटी थी। तो भी बारामासी होती। अब पीयत बड़ायो तो पाणी को टोटो पड ने लग्यो।
पेलाँ महाकाल वन थो, वाँज अवन्ती राज कायम हुओ। फेर ऊज थोडो आसपास फसरी के जद मालव गण को राज हुयो तो मालवो केवाणो। माकाल, कृष्णभगवान ने ऊँकारेश्वर का तीरथ हे याँ। विक्रमादित, भरथरी, भोज जेसा गुणी राजा हुवा। सिपरा, नरबदा, चम्बल, मई, बेतवा जैसी छोटी पण नामी नद्याँ हे याँ। याँ का लोगाँ का धन्धा हे करसाणी ने वेपार।
मालव देस रहे घर जाको।
खेती बनिज जीविका ताको॥
अणी से मालवो हमेसा फलतो फूलतो र्यो ने याँ की निपज पे सबके भरोसो र्यो। पास का मारवाड का लोगाँ में केवात वई गी थी के -
गांगी गोल हाले। के मोय री मारी॥
के गंगा मालवे चाले। के प्राण बचावा का मोह में जाणो ज पडेगा। मारवाडी में मालवे जाणो गोल केवाय। अणी मालवा में हमेसा सुकाल र्यो, कदी दुकाल न पडे। अणी से यो सोना को भंडार केवातो र्यो।
देस मालवो कंचनखाना।
एसा सुखी लोगाँ की भासा ने पोसाक से ज पेचान हुई जाती थी। उनकी आवन्ती भासा की बात भरत का नाट्यशास्त्र में भी हे। वाँ पे आवन्ती रीति, वृति, प्रवृति, केश पद्धति तक की बात हे। या बात कामसास्तर ने चतरभाणी में भी मले। या आवन्ती पराक्रत भासा बाद में धीरे धीरे उज्जेणी मालवी वणीगी। अणी अवन्ती का आसपास मन्दसोर तक की बोली पेलाँ जो पेसाची थी, वा ज अबे उजेन का बाहर मालवा की बोली हे। वणी पेसाची मालवी पे आस पडोस की मारवाडी, गुजराती, मराठी, बुन्देली को असर हो तो र्यो। पण उजेणी नकेवरी वणी री। पण वणी पे बी वगत वगत का राजा की सकी, हूणी, तुरकी, मराठी, राजस्थानी, अंग्रेजी वगेरा को असर तो पड तो ज र्यो। सब मिली ने आज की मालवी हे। अणी मालवी की सेली के रीत भी सबके एसी मनभाई के उनकी रीत सास्तराँ में बेठी के हजाराँ सालाँ से गुणी लोगाँ को ध्यान खेंची री।
मालव गण का सिक्का चाल्या। मालव संमत् चाल्यो जो आज विकरम संवत् केवाय। पाँच महापुरसाँ में मालव पुरस का लक्खण खास हे। जणा हिसाब से लोगाँ की, मूरताँ की ने चितरावण की पेचाण वेती थी। वरामिहर, भोज, पुराण वगेरा ने ई सब बाताँ लिखी हे। संगीत में मालव राग- रागण भी खास हे। गीत- गोविन्द का वी राग आज तक सुणवा में आवे। मालवी भासा की मालवी लिपि भी थी। वणी लिपि की जगा अबे नागरी लिपि ज काम में आवे। अणी मालवा की देवी मालवन माता को पुरानो मंदर आलीराजपुर का पास में हे। अणी से या बात साफ वे के वाँ तक मालवा की हीम हे।
अवन्ती की पेचान हजारों बरसाँ से हे। मालवा नाम से वणी की पेचान भी कम से कम ढाई हजार बरसाँ से हे। आज अणी में कमज्यादा बीस जिला ने मालवी बोलने वाला, कम से कम दो करोड़ लोग हे। परंपरा से मालवा की अपणी पेचान हे ने वा पेचाण कायम रेणी चइये। एसा सब उपाव होता रेणा चइए। मालवा की आपणी पेचान जगत जाणे हे। वणी मालवा ने वणी को मालवी मान मालवा वाला के ज राखणो पडेगा।[संपर्क: डॉ.भगवतीलाल राजपुरोहित,निदेशक ,विक्रमादित्य शोध पीठ, उज्जैन]
मालवी बोली के माधुर्य से परिचित कराने और मालवी बोली से गैर-मालवी लोगों को जोड़ने में इस ब्लॉग की भूमिका नि:संदेह सशक्त रहेगी। मेरी ओर से बधाई।
जवाब देंहटाएंबधाई, लिखते रहे. मालवी संस्कृति की खूशबू फैले, आपके ब्लाग के माध्यम से.
जवाब देंहटाएंआपको धन्यवाद .
जवाब देंहटाएंbahot ache...
जवाब देंहटाएंgood job
धन्यवाद .
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