मालवा भारत का ह्रदय अंचल है. मालवा और उसकी भाषा ,साहित्य एवं संस्कृति सुदूर अतीत से निरंतर प्रवहमान है. इसे सहेजना भारतीय संस्कृति को सहेजना है.इसी की एक कोशिश है...
मालवी के मर्ममधुर गीतकार मोहन सोनी : रई रई के म्हारे हिचक्याँ अइ री हे - प्रो शैकेन्द्रकुमार शर्मा
Mohan Soni : The Melodious Lyricist of Malvi - Shailendrakumar Sharma
आत्मीय स्मरण दादा मोहन सोनी
मालवी गीतमाला का मनका - गीत 'रई रई के म्हारे हिचक्याँ अइ री हे' मूक हो चला है। दादा मोहन सोनी (23 मई 1938- 18 जून 2019) नहीं रहे, विश्वास नहीं होता। आधुनिक मालवी काव्य को नई रंगत उन्होंने दी थी। पूरे देश को मालवी कविताओं के रस से सराबोर करने वाले स्व. मोहन सोनी ने देश के जाने - माने कवि स्व. बालकवि बैरागी, निर्भय हाथरसी, काका हाथरसी, नीरज, डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन, निर्भय हाथरसी, हरिओम पँवार सहित कई दिग्गज हिंदी कवियों के साथ मंच साझा करते हुए मालवी भाषा को नई पहचान दी थी।
उनका चर्चित गीत है-
रई रई के म्हारे हिचक्याँ अइ री हे
लजवन्ती तू ने याद कर्यो होगा।
थारे बिन मोसम निरबंसी लागे
तू हो तो सूरज उगनो त्यागे
म्हारी आँख्यां भी राती वईरी हे
तू ने उनमें परभात भरयो होगा।
सुन लोकगीत का पनघट की राणी
थारे बिन सूके पनघट को पाणी
फिर हवा,नीर यो काँ से लईरी हे
आख्याँ से आखी रात झरयो होगा।
बदली सी थारी याद जदे भी छई
बगिया की सगळी कली कली मुसकई
मेंहदी की सोरभ मन के भईरी हे
म्हारा फोटू पे हाथ धर्यो होगा।
रई रई के म्हारे हचक्याँ अईरी हे
लजवंती तू ने याद कर्यो होगा।
माँ पर मालवी में लिखी गई उनकी यह रचना मालवी की मिठास और माँ की महिमा का सुखद एहसास कराती है:
माता ने धरती माता सरग से बड़ी है
मोहन सोनी
(मालवी कविता)
माता ने धरती माता सरग से बड़ी है
म्हारा पे तो दोई माँ की ममता झड़ी है।
एक ने जनम दियो , दूसरी ने झेल्यो
दोई माँ का खोला में हूँ एक साथ खेल्यो।
एक है बगीचों , दूजी फूल की छड़ी हे
म्हारा पे तो दोई माँ की ममता झड़ी है।
जायी माँ धवावे तो धरती धपावे
एक गावे लोरी , दूजी पालने झुलावे
भावना का सांते जाणे गीत की कड़ी है
म्हारा पे तो दोई माँ की ममता झड़ी है।
सिंघनी को पूत हूँ मै ,गाजूँ ने गजउँगा
धायो हे थान माँ को दूध नी लजउँगा
धरती को धीरज देखो पावँ में पड़ी है
म्हारा पे तो दोई माँ की ममता झड़ी है।
करजदार दोई को पन हिरदा से पूजी
जनम तंई समाले पेली, मरवा पे दूजी
जनम से मरण तक दोई हाजर खड़ी है
म्हारा पे तो दोई माँ की ममता झड़ी है।
(यह कविता स्व. मोहन सोनी के सुपुत्र श्री प्रमोद सोनी ने वरिष्ठ पत्रकार श्री चंद्रकांत जोशी, मुंबई को भेजी थी। उनके सौजन्य से यह कविता साभार प्रस्तुत)
हर बरस मालवा-निमाड़ से लेकर गुजरात, राजस्थान और हरियाणा के विभिन्न अंचलों तक लोक पर्व गणगौर की धूम मचती है। यह विश्वाधार के लोक से संवाद का पर्व है। लोकमन इस मौके पर उमंग और उल्लास में डूब जाता है। आखिर क्यों न हो मालवा की रनुबाई-पार्वती से मिलने घणिया राजा - भोला भण्डारी अपने ससुराल जो आते हैं। फिर दामाद की आवभगत में कमी कैसे रहे।
कुछ तस्वीरें निज संग्रह के काष्ठ शिल्पों की।
चैत्र महीने की शुक्ल पक्ष की तीज को आता है यह लोक पर्व। इस दिन कुंवारी लड़कियां एवं विवाहित स्त्रियाँ शिवजी (इसर जी) और पार्वती जी (गौरी) की पूजा करती हैं। पूजा करते हुए दूब से पानी के छींटे देते हुए गोर गोर गोमती गीत गाती हैं।
नवरात्र के तीसरे दिन यानि कि चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया - तीज को गणगौर माता (माँ पार्वती) की पूजा की जाती है। पार्वती के अवतार के रूप में गणगौर माता और भगवान शंकर के अवतार के रूप में ईशर जी की पूजा की जाती है। प्राचीन समय में पार्वती ने शंकर भगवान को पति रूप में पाने के लिए व्रत और तपस्या की। शंकर जी तपस्या से प्रसन्न हो गए और वरदान माँगने के लिए कहा। पार्वती ने उन्हें ही वर के रूप में पाने की अभिलाषा की। पार्वती की मनोकामना पूरी हुई और पार्वती जी का शिव जी से विवाह हो गया।
तभी से कुंवारी लड़कियां इच्छित वर पाने के लिए ईशर और गणगौर की पूजा करती है। सुहागिन स्त्री पति की लम्बी आयु के लिए यह पूजा करती हैं। गणगौर पूजा चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि से आरम्भ होती है। सोलह दिन तक सुबह जल्दी उठ कर बगीचे में जाती हैं, दूब और फूल चुन कर लाती हैं। उस दूब से दूध के छींटे मिट्टी की बनी हुई गणगौर माता को देती है। थाली में दही, पानी, सुपारी और चांदी के छल्ले आदि पूजन सामग्री से गणगौर माता की पूजा की जाती है।
आठवें दिन ईशर जी पत्नी (गणगौर) के यहां अपनी ससुराल आते हैं। उस दिन सभी लड़कियां कुम्हार के यहाँ जाती हैं और वहाँ से मिट्टी के बर्तन और गणगौर की मूर्ति बनाने के लिए मिट्टी लेकर आती है। उस मिट्टी से ईशर जी, गणगौर माता, मालिन आदि की छोटी छोटी मूर्तियाँ बनाती हैं। जहाँ पूजा की जाती है उस स्थान को गणगौर का पीहर और जहाँ विसर्जन किया जाता है, वह स्थान ससुराल माना जाता है।
यह तस्वीर हमारे निजी संग्रह के काष्ठ शिल्प की।
गणगौर गीत: शुक्र को तारो रे ईश्वर ऊगी रयो। प्रसिद्ध लोक गायिका श्रीमती हेमलता उपाध्याय के स्वरों में। धन्यवाद Shishir Upadhyay - Jaishree Upadhyay
गणगौर नृत्य: श्रीमती साधना उपाध्याय के निर्देशन में निमाड़ गणगौर एवं लोक कला मण्डल, खण्डवा के कलाकारों की सम्मोहक प्रस्तुति। आत्मीय धन्यवाद Hemant Upadhyay Adv Animesh Upadhyay